साहित्य-संचेतना-कहानी प्रेरणास्रोत कैलाशचन्द्र जायसवाल भोपाल (मध्य प्रदेश)'नेपथ्य'सितम्बर 2019

साहित्य-संचेतना-कहानी


             प्रेरणास्रोत


                                                                                                                                                                                                                           कैलाशचन्द्र जायसवाल                                                                                                               भोपाल (मध्य प्रदेश)


'आज आपका काम जल्दी निपट जाए तो वापसी में मेरी दवाईयां और....।' पत्नी कहते कहते रूक गई।


'और क्या लाना है ?' उसने पत्नी के उदास चेहरे को निहारते हुए पूछा। 'जी ..वो शक्कर भी खत्म होने को है। 'पत्नी ने धीमे स्वर में बताया।' ठीक है, ले आऊँगा। वह जानता है पत्नी बहुत जरूरी होने पर ही सामान लाने के लिए कहती है। शहर जाना रोज-रोज तो होता नहीं। जब वेतन मिल जाता है तो महीने भर का सामान इकट्ठा ले आता है। बीच में किसी सामान की जरूरत पड़ती है तो गाँव की छोटी सी किराना दुकान से महंगी दर पर खरीदना होता है।


जिला मुख्यालय से लगभग सत्तर किलोमीटर दूर पहाड़ी अंचल में बसे गाँव से शहर जाने के लिए सुबह-सुबह दो ही बस मिलती है, जिसके लिए भी एक किलोमीटर दूर मुख्य मार्ग पर जाना होता है। पहली बस तो शायद निकल ही गई होगी। वह जल्दी जल्दी जूते के फीते बांधता है। पत्नी ने उसका पुराना बेग लाकर दिया और कहा- 'इसमें लंच बॉक्स के साथ एक झोला भी रख दिया है- सामान के लिए।' उसने 'ठीक है' कहा और 'आता हूं।' कहकर तेजी से चल दिया।


कच्चे रास्ते पर जाते समय दूर तक उसे अपनी पीठ पर पत्नी की घूरती आँखों की अनुभूति हुई।


बस आ चुकी थी। बस तक पहुंचने में उसकी सांस फूल गई थी। खचाखच भरी बस में परिचित कंडक्टर ने किसी तरह एक सीट पर उसे बैठा दिया। शरीर से पसीना बहने लगा। बस के चलने पर ठंडी हवा के झोंके से कुछ राहत महसूस हुई। उसने बस में बैठे सहयात्रियों पर नजर डाली। ग्रामीण व शहरी वेशधारी अनेक महिला-पुरूष अपने लहजे में बतिया रहे थे। एक पगड़ीधारी बाबा सट्टे की पर्चियां देख रहा था तो दूसरा नहर के मुआवजे का हिसाब लगा रहा था। ड्राइवर के साइड बोनट के पास वाली सीट पर तीन महिलाएँ बैठी थी, इनमें से एक महिला को देखते ही उसका हृदय धक्क से रह गया। ऐसा लगा जैसे किसी ने सीने पर जोरदार चूंसा जड़ दिया हो। ढाई तीन साल के बच्चे को कंधे पर लिए दो काली आंखें उसे ही अपलक घूर रही थी। युवती की आँखो में झलकते अनेक भावों ने उसे विचलित कर दिया। दस वर्ष पूर्व का चेहरा उसके मन-मस्तिष्क परछा गया। अतीत की सखद स्मृतियां उसके अन्तस को झकझोरने लगी।


वह दिन भी क्या दिन थे। उमंग, उत्साह व नई स्फूर्ति के साथ शहर के कालेज मे प्रवेश लिया था। अनेक तर्कों के साथ उज्ज्वल भविष्य के सपने दिखा कर पिताजी से जुगाड़ेपैसों से नए कपड़े बनवाए। नई डिजाइन का पेन्ट-शर्ट, चमचमाते जूते पहन कर सलीके से संवरे बाल व नया बेग कंधे पर लटका कर मित्रों के साथ मस्ती करते जब कालेज जाते तो सड़क चलते लोग देखते ही रह जाते थे। कभी साहित्य, राजनीति, बेरोजगारी,तो कभी टाकीज मे लगी नई फिल्म या कालेज में साथ पढ़ने वाली लड़कियां हमारी बातचीत के विषय हुआ करते थे। न कोई डर न ही किसी का दबाव । बस पढ़ाई के साथ मस्ती और शरारतें करना ही हमारा काम था। इस बीच कालेज मे बी.कॉम. प्रथम वर्ष मे एक लड़की ने प्रवेश लिया तो उसके सौंदर्य की चर्चा कालेज के हर स्टूडेंट की जबान पर था। सुन्दर इकहरा गोरा बदन आकर्षक नाक-नक्श व चंचल आंखें बरबस ही अपनी ओर खींच लेती थी। उसके काले घने लम्बे बाल मित्रों के बीच बहस का विषय बन गये थे। कोई कहता नकली है तो कोई काली डाई लगाने की बात करता था। वह गंभीरता के साथ कहता- बालों की महक बता रही है कि असली है बहस जब चरम पर पहुंच गई तो तय हुआ कि उस लड़की से ही पूछा जाए कि उसके बाल असली है या नकली। पर पूछे कौन ? उन दिनों कालेज मे किसी लड़की से बातचीत करना आसान नही था। क्लास में भी लड़के-लड़कियों को अलग-अलग बैठाया जाता था। लड़की से बालों के बारे में पूछने का काम भी उसे ही करना पड़ा और एक दिन कालेज परिसर मे बने पार्क के प्रवेश द्वार पर उसने उस लड़की को रोक ही लिया-देवी जी जरा सुनिए! मित्रों की सांसे थम गई। जी कहिये उसने मधुर स्वर में पूछा। उसकी मधुर आवाज के मोह पाश मे बंध कर उसने पूछा- क्या आप यह बता सकती है कि ....आप के ये केश असली हैं या नकली?


 


उस लड़की के गुलाबी अधरों पर मुस्कराहट खिल गई। उसने कहा- जब आप किसी लड़की के असली बालों की पहचान नहीं कर सकते तो उसकी कोमल भावनाओं की पहचान कैसे करोगे ? मोहक मुस्कान बिखेरती हुई वह चली गई। उसका उत्तरसुन कर सब मित्र जड़वत् हो गए थे।


यह उस से उसकी पहली मुलाकात थी।


एक दिन वह कालेज की फीस जमा करवाने के लिए कैश काउन्टर पर खड़ा था। वह भी कतार में खड़ी अपनी बारी का इंतजार कर रही थी। वह उसकी उपस्थिति के अहसास को नजरअंदाज नहीं कर पा रहा था। इस बीच काउंटर क्लर्क ने पैसे गिन कर कहा कि तीस रूपये कम है। सुन कर वह घबरा सा गया। जानता था कि पैन्ट की जेब में अब एक भी पैसा नही है फिर भी हाथ डालकर टटोलने का उपक्रम करने लगा। शायद घर रह गए होंगे कल दे जाऊँगा। उसने धीमे स्वर में ऐसा कहा था कि कोई सुन नहीं ले। पर काउन्टर क्लर्क ने तेज आवाज में कहा कि-कल छुट्टी है और आज फीस जमा करने की अंतिम तारीख है। उसका चेहरा विवर्ण हो गया। कुछ संकोच व कुछ उस लड़की की उपस्थिति से उसके हाथ पैर सुन्न हो गए। उसने हड़बड़ा कर पैसे समेटे और काउन्टर से हट गया तो सुनिए, की मधुर आवाज सुनकर रुक गया। आप पैसे मुझ से लेकर फीस जमा कर दीजिए। उसे एक लड़की से सहायता लेना अप्रिय लगा और अनायास ही उसके मुँह से निकल गया 'मैं किसी से दान नहीं लेता।' मैं भी कोई दानदाता नहीं हूँ, उधार दे रही हूँ, परसों वापस लौटा देना आज फीस जमा करने की आखिरी तारीख है। लड़की ने सहजता से कहा। अब इंकार नहीं कर सका। पैसे लिए और काउंटर पर जमा कराकर लड़की को धन्यवाद कहते हुए तेजी से वहाँ से हट गया।


उस रात वह ठीक से सो नहीं सका। नींद आँखों से कोसों दूर थी। आंख बन्द करता तो उस लड़की की सुन्दर छवि दिखाई देती। आज से पहले ऐसा कभी नहीं हुआ। कई लड़कियां साथ में पढ़ती थी पर किसी को देखकर दिल की धड़कने कभी नहीं बढ़ी और न ही कोई दिमाग पर इस तरह छाई। जितनी उत्सुकता इस लड़की से मिलने व बात करने की हुई इतनी तो कभी भी किसी मित्र से मिलने की नहीं हुई। कल सुबह उस लड़की से मिलना ही होगा। मगर कल तो कालेज की छुट्टी है और उसके घर का पता भी नहीं मालूम है। अब तो परसों ही मिलना संभव है। अपने मन को दिलासा देकर सोने की कोशिश करने लगा।


किसी तरह छुट्टी का दिन बिताया। अगले दिन सुबह सजसंवर कर कालेज की ओर चला। मन में उल्लास था कि आज पैसे लौटाने के बहाने उससे मित्रता बढ़ाएगा। उसने अन्य किसी मित्र से हाय हलो भी नहीं किया और सीधे क्लास रूम की ओर चल दिया। क्लास रूम मे प्रोफेसर अटेंडेंस ले रहे थे। वह चुपचाप जा कर अपनी सीट पर बैठ गया। अपना नाम आने पर जोर से 'प्रेजेंट सर' कहा ताकि वह लड़की भी सुन ले। पर उस लड़की ने ध्यान नहीं दिया। वह एक पुस्तक के पन्ने पलटती रही। प्रोफेसर का लेक्चर शुरू हो गया था लेकिन सुधेन्द्र का मन नहीं लग रहा था। आज उसे अपनी मनस्थिति पर अचरज हो रहा था। ऐसा कभी नहीं हुआ कि पढ़ाई के समय क्लास रूम में उसका मन भटका हो। पीरियड समाप्त होते ही वह अपनी सहेलियों से बात करती हुई क्लास रूम से निकल कर लायब्रेरी की ओर चली गई। उसने सुधेन्द्र की तरफ आँख उठा कर भी नहीं देखा। सुधेन्द्र में इतना साहस नहीं था कि आवाज देकर उसे रोक ले और पैसे वापस कर दे। हमेशा चहकने वाला सुधेन्द्र इतना नर्वस कभी नहीं हुआ था। झुंझला कर वह पार्क की ओर चला गया। अगला पीरियड आरम्भ होने में अभी समय था। मित्रों से बात करने का उसका मूड नहीं था। उसने अपने आपको संभाला। उस लड़की के प्रभाव से मुक्त होने के लिए पार्क में बैठकर नोट्स तैयार करने का प्रयास करने लगा।


अरे! सुधेन्द्र, आज देवदास जैसी सूरत बना कर क्यों बैठे हो? एक मित्र ने पास आकर पूछा। तबीयत थोड़ी ठीक नहीं है इसलिए रेस्ट पीरियड में यहाँ सुकून से बैठा हूँ।' उसने अनमने मन से उत्तर दिया। कुछ और बात है यार, आज तो अनुपमा के भी खूब चक्कर लगा रहे हो। कुछ तो है। मित्र ने पुनः छेड़ दिया। फालतू बातें मत करो, जाओ यहाँ से, मुझे डिस्टर्ब मत करो। 'सुधेन्द्र ने कठोर लहजे में कहा। उसके तेवर देख मित्र वहाँ से खिसक लिया। सुधेन्द्र विचलित हो कर नोट्स बनाने का अभिनय करने लगा। वह जाने कब तक पार्क में बैठे नोटबुक पर आड़ी-तिरछी रेखाएं खींचता रहा। अगला पीरियड शुरू होने का उसे आभास ही नहीं हुआ। उसने कालेज में कभी कोई पीरियड अटेंड करने में लापरवाही नहीं बरती थी। आज उसे अपने आप पर क्रोध आ रहा था कि वह उस लड़की को कुछ ज्यादा ही 'इम्पार्टेन्स' दे रहा है। एक बार उसके पैसे लौटा दूं फिर आगे बात नहीं बढ़ाऊँगा। विचारों मे खोया नोटबुक के पन्ने पलटने लगा। "अरे! सुधेन्द्र आज तो आप बहुत गंभीर नजर आ रहे हैं। क्या बात है ?" मधुर आवाज सुनकर वह चौंक गया। नजर उठा कर देखा तो सामने वही खड़ी थी जिसने बेचैन कर रखा था।


'नहीं ..तो....यूं ही,' कहकर हड़बड़ाहट में उठकर खड़ा हो गया।' आप... क्लास में नहीं गई ?' पैसे लौटाने के बहाने जिससे मित्रता बढ़ाना चाहता था अब उससे बात करने को शब्द नहीं मिल रहे थे। "हिस्ट्री मेरा सब्जेक्ट नहीं है इसलिए क्लास में नहीं गई।" लड़की ने कहा।


"अच्छा! मुझे ध्यान ही नहीं रहा... अरे ...हां.... ये आपके पैसे..।" उसने पेन्ट की जेब में हाथ डालकर पैसे निकाले और कहा- "लीजिए, आपने समय पर जो मदद की उसके लिए धन्यवाद।"


"इसमें धन्यवाद की क्या बात है एक सहपाठी के रूप में हम एक दूसरे का सहयोग करते ही है। वैसे आप इस बात को इतना 'इम्पार्टेन्स' मत दीजिए।" अभी कुछ समय पूर्व उसके मस्तिष्क में भी यही विचार उभरा था। तो क्या वह उसकी गतिविधि पर नजर रख रही है? उसने उसकी बात पर जी ठीक है, कहा। वह मुस्कुराती हुई चली गई। वह दूर तक उसकी पीठ पर लहराते बालों को निहारता रहा। 


इस प्रसंग के बाद अक्सर एक दूसरे को देख कर मुस्करा देते तो कभी-कभी हाल चाल पूछ लेते। वे आपस में नोट्स व पुस्तकों का आदान-प्रदान करने लगे। सुधेन्द्र का जीवन ही बदल गया। नव आकांक्षाओं का दीप उसके हृदय में जगमगाने लगा। हर क्षेत्र में अपने सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन से अनुपमा को प्रभावित करना उसका लक्ष्य बन गया। वह उसकी प्रेरणा बन गई। अनुपमा को देखते ही उसके तन-मन में नई उमंग तरंगित होने लगती। अपनी कमियों को दूर कर उत्कृष्ट कार्य करने के लिए बहुत परिश्रम करने लगा। कालेज में चाहे वाद-विवाद प्रतियोगिता हो या क्रीड़ा प्रतियोगिता सब में वह प्रथम रहता। सांस्कृतिक कार्यक्रमों में तो जैसे वह जान ही फूंक देता था। कालेज में उसकी प्रतिभा की धाक जम गई थी। सब की जुबान पर उसका ही नाम रहता। अनुपमा उसकी हर उपलब्धि पर तालियाँ बजा कर उसका हौसला बढ़ाती थी। वे दोनों भी नजदीक आ गए थे और अक्सर साथ में देखे जाते थे। एक दिन बातों बातों में अनुपमा ने पूछा- 'सुधेन्द्र तुम्हारी फ्यूचर प्लानिंग क्या है ? सुधेन्द्र ने प्रति प्रश्न किया- 'किस तरह की प्लानिंग ?'


"अनजान मत बनो। पढ़ाई पूरी करने के बाद क्या करोगे ?कुछ तो सोचा होगा। 'वह सपाट स्वर में बोली।' 'अच्छा.. अच्छा मैं समझा शादी-ब्याह की प्लानिंग पूछ रही हो!' वह हंस कर बोला।


'फ्यूचर प्लानिंग में सभी सम्मिलित होता है।' अनुपमा के स्वर में गंभीरता थी।


'देखो भाई, प्लानिंग तो यह है कि पढ़ाई पूरी कर आई.ए.एस. या आई.पी.एस. बनना है। यह लम्बी प्लानिंग है और यह सब मुझे प्रेरित करने वाली प्रेरणा पर निर्भर है।' सुधेन्द्र ने उसके चेहरे को निहारते हुए कहा। अनुपमा ने उसकी आँखों में झांक कर पूछा- 'आखिर हमें भी तो पता चले कौन है तुम्हारी प्रेरणा ?'


"है कोई।' कहकर वह चुप हो गया। वह चाहकर भी अपनी प्रेरणा का नाम होठों पर नहीं ला पाया। दोनों के हृदय में एक दूजे के लिए अपार प्रेम है किन्तु अभिव्यक्ति की पहल कौन करे? सुधेन्द्र चाहता था कि अनुपमा उससे कहे कि-मैं तुम से प्यार करती हूं और तुम्हारी जीवनसंगिनी बनना चाहती हूँ।' और अनुपमा के मन में था कि सुधेन्द्र उसे प्रेम व्यक्त कर विवाह के लिए प्रस्तावित करे। पर संकोच के कारण दोनों ने चुप्पी साध ली। इन्हीं बातों में दिन बीतने लगे। वार्षिक परीक्षाओं का समय नजदीक आ गया। सुधेन्द्र टॉप करने का लक्ष्य लेकर पढ़ाई में व्यस्त हो गया। अनुपमा भी परीक्षा की तैयारी में जुट गई।


परीक्षा के चक्कर में अनुपमा से मिले कई दिन हो गए। अनुपमा कई दिनों से कालेज भी नहीं आ रहा थी। सुधेन्द्र की बेचैनी बढ़ गई। उसके घर जाने का विचार करने लगा। एक दिन वह कालेज आई। गुलाबी चेहरा मुरझाया हुआ था। शायद पढ़ाई का तनाव रहा होगा। कालेज में अपना कार्य कर दोनों पार्क में मिले।


'क्या बात है बहुत कमजोर लग रही हो ? तबीयत तो ठीक है ?पेपर कैसे रहे ?मेरी याद नहीं आई?' एक ही बार में उसने ढेर सारे प्रश्न पूछ लिए। वह चुपचाप बाएं पैर के अंगूठे से जमीन कुरेदती रही। सुधेन्द्र भावविह्वल हो गया। उसने उसे लगभग झिंझोड़ते हुए कहा- 'अरे! कुछ तो बोलो! मुझसे बात करो! चुप क्यों बैठी हो?' अनुपमा ने प्रश्नसूचक दृष्टि से उसकी आँखों में झांका और कहा- 'जानना चाहते हो ना?' अनुपमा की आँखों में गहरा संघर्ष छलक उठा। वह उसे कुछ देर तक विचित्र ढंग से घूरती रही। वह सहम गया। अनुपमा ने अपनी नोट बुक के बीच से एक रंगीन लिफाफा निकाल कर सुधेन्द्र की ओर बढ़ा दिया।' क्या है यह ?' कहकर लिफाफा लिया और तेजी से खोल कर पढ़ने लगा। वह एक दम चीख उठा।


'नहीं... अनु... नहीं ऐसा नहीं हो सकता ...तुम ऐसा नहीं कर सकती। यह सब कब हुआ ? तुमने कभी कुछ बताया नहीं ?' उसने दृष्टि उठाकर देखा तो अनुपमा वहाँ नहीं थी। शायद वह उसकी प्रतिक्रिया का सामना नहीं कर सकती थी। यह अनुपमा के विवाह का आमंत्रण पत्र था। उसके हृदय की धड़कने बढ़ गई थी। शरीर कांपने लगा। भाल पर पसीना छलक आया। गहरा आघात लगा उसे। बहुत देर तक विक्षिप्त सा पार्क में बैठा बिलखता रहा। इतनी बड़ी बात अनुपमा ने उससे छुपाई क्यों ? अरे! वह भी कैसा मूर्ख वह इतने दिन चुप क्यों रहा ? उसने अनुपमा को पहले ही क्यों नहीं बताया कि- 'तुम ही मेरी प्रेरणा हो। तुम ही मेरी शक्ति हो। मैं तुम से बहुत प्यार करता हूँ। 'हां मुझे कहना था क्योंकि वह यह सुनने का इंतजार कर रही थी। जब कहने का सोचा तो बहुत देर हो चुकी थी। उसके मन में विचार आया कि वह अनुपमा से कह दे कि 'तुम इस शादी से इंकार कर दो।' वह एकदम उठा और अनुपमा को बहुत देर तक कालेज में ढूंढता रहा पर वह नहीं मिली। वह अनुपमा के घर जाने का साहस नहीं जुटा पाया। उसकी सारी प्रेरणाएं, उज्ज्वल भविष्य व आकांक्षाएं सब अनुपमा के साथ जा चुकी थी और आज जब दस साल बाद उसे देखा तो....।


'अरे मास्टर साहब! उतरना नहीं हैं क्या ? आपका स्टाप आ गया है।' बस कन्डक्टर की तेज आवाज सुन वह चौंक कर विचार प्रवाह से बाहर आया। उसने अनुपमा की सीट की ओर देखा। वहां कोई नहीं था। वह बस से उतर कर चली गई थी। अपना बेग संभाल कर वह बस से उतर गया है। अचानक उसके मस्तिष्क में विचार आया कि अब क्यों वह अनुपमा की तलाश करे। उसने विवाह करने से पहले एक बार भी उससे बात नहीं की। कैसे एकदम बिना कुछ कहे विवाह का आमंत्रण थमा कर चली गई। हम दोनों ने इस दस वर्ष में कभी मिल कर हाल जानने की कोशिश नहीं की। अब क्यों दुख मनाए ? उसकी वास्तविक प्रेरणा तो उसके साथ घर पर है जो उसके जीवन के हर उतार-चढ़ाव की संगिनी है। वह नई स्फूर्ति से भर गया और सरकारी काम निपटाने के लिए तेजी से उसके कदम दफ्तर की ओर बढ़ गए।